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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो

 

(1)


लड़कियाँ पढ़-लिख जाएँगी, उसके बाद क्या करेंगी? हद से हद नर्स, टीचर या प्राइवेट सेक्रेटरी वन जाएँगी? अगर पढ़ी-लिखी न हों, तो या तो दर्जी बनेंगी या दासी! वे लोग इसी लक्ष्मण रेखा में कैद हैं। इस दायरे से वे लोग बाहर निकली नहीं कि लोग-बाग़ दाँतों तले उँगली दवाने लगते हैं।

पिछले दिनों, प्लानिंग कमीशन की एक उच्च पदस्थ महिला से मेरी बात हुई। उन्होंने कहा, 'लोग-बाग मेरी तरफ हैरत से देखते हुए पूछते हैं, आप नौकरी क्यों करती हैं? मेरा मतलब है कि आपको क्या रुपए-पैसों की कमी है? कमी न होती, तो घर-गृहस्थी छोड़कर नौकरी करने की भला क्या ज़रूरत? अगर कुछ करना ही है, तो सोशल वर्क कीजिए...समाज-सेवा?'

औरतें नौकरी करें, बाल-बच्चे सँभालें, पति के लिए खाना-वाना पकाएँ, पति के नाते-रिश्तेदारों को अपने यहाँ दावत देकर उन लोगों को अपने हाथों का पका हुआ खाना खिलाएँ, बच्चों को स्कूल ले जाएँ, पढ़ाएँ-लिखाएँ-ऐसा न करके या इसमें चकमा देकर नौकरी-चाकरी करने की कोई वजह लोगों की समझ में नहीं आती। ऊँचे पद पर नौकरी करते हुए, अपने मातहत मर्दो पर जब-तब आदेश निषेध झाड़ना कैसा तो बेखफा लगता है! हाँ, यह तो सच है। औरत अगर प्राइवेट सेक्रेटरी हो, तो भी अच्छी लगती है! सज-धजकर आएगी, अफसर लोग जो कहें, तो फौरन उसका पालन करें, फाइल उसके सामने बढ़ा दें। अगर मुमकिन हो, तो कलम, चाय, बदन का कोट, टाई, चश्मा भी उसके सामने रख दें। ऐसे काफी सारे डाइरेक्टर या एम. डी. होते हैं, जो बीवी को घर छोड़ आते हैं और दफ्तर में वीवी की ख्वाहिश मिटाने के तकाजे पर प्राइवेट-सेक्रेटरी से दिल लगाते हैं। मानो दध का स्वाद मठे से मिटाना चाहते हैं या मट्ठे का स्वाद दूध से मिटाना चाहते हैं। औरतें नर्स की तरह सेवा-जतन करें, जैसे वीवियाँ करती हैं, जैसे दासियाँ करती हैं। अब औरतें दासी न बनकर अगर मालिक बन बैठें, तो समाज क्या आसानी से मान लेगा? नहीं, नहीं मानेगा! इसलिए लड़कियों को तिरस्कार और लोगों की तनी हुई भौंहें बर्दाश्त करते हुए, काम किए जाना होगा। तिरस्कार का खौफ सबसे ज़्यादा मध्यवित्त लोगों में होता है। मध्यवित्त औरतें इस बात की कतई परवाह नहीं करतीं कि साड़ी उनकी छाती से कितना खिसक ! गई है या एड़ियों से ऊपर कितनी चढ़ी हुई है! उनके पेट में भूख कुलांचे भरती ! रहती है, वही भूख मिटाने के लिए वे लोग कामकाज या नौकरी करती हैं। दौलतमंद। लड़कियाँ रुपयों के लिए न सही, वक्त गुज़ारने या एक किस्म के अनोखेपन के लिए कामकाज करती हैं। मध्यवित्त औरतें चेहरे को चूँघट से ढंके रखती हैं! उन : लोगों में तरह-तरह के संस्कार काम करते हैं। पति की इजाजत नहीं मिली, लोग क्या कहेंगे, बच्चे कच्चे इंसान नहीं बन पाएँगे-ऐसे ही बहाने-बहाने से वे लोग घर में ही बैठी रहती हैं। घर में बैठे-बैठे साड़ी-गहने की डिज़ाइन, माधुरी दीक्षित का नाच और हुमायूँ के हास्य नाटकों में मगन रहती हैं। अब, अगर शिक्षित मध्यवित्त लड़कियाँ, झुंड-झुंड में कामकाज करने के लिए बाहर न निकलें, तो अपनी आज़ादी का अपने हाथों बलि देने जैसा होगा। असल में उस परिवार में विवाह ही नहीं करना चाहिए। जहाँ औरत के नौकरी करने पर पाबन्दी है। उस मर्द के प्रेम-प्यार का प्रतिउत्तर ही नहीं देना चाहिए या प्यार ही नहीं करना चाहिए। अगर मर्द, औरत की आज़ादी में बाधा दें। वैसे नौकरी करने से ही औरत को उसकी सारी स्वाधीनता मिल जाती है, यह भी सच नहीं है। लेकिन वह किसी भी तरह का कामकाज क्यों न करे, अगर उसने उस काम की योग्यता अर्जित की है? वर्ना उसे शिक्षा-दीक्षा देकर राज्य को भला क्या फायदा हुआ? खाना पकाना, घर-द्वार साफ़ करना, शिशु-पालन, पति-पत्नी, दोनों को ही मिलकर करना सरासर संभव है। मेरा ख्याल है कि हर नागरिक के लिए ही काम करना, नैतिक दायित्व है! उस इंसान जैसा देशद्रोही भला और कौन है, जो औरत की मेधा और प्रतिभा को ध्वंस कर दे? इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है, अगर उस पर देश या समाज का सिर्फ ख़र्च ही खर्च हो, कोई आमदनी न हो?

(2)


गार्मेंट फैक्टरी में जब लड़कियाँ-औरतें दल बाँधकर काम करने जाती हैं, उससे ज़्यादा खूबसूरत दृश्य, मुझे नहीं लगता कि इस देश में और कुछ भी है! जो लड़कियाँ पढ़-लिख नहीं पाईं, बाल-विवाह की तैयारी में हैं; गृहस्थी में भी भयंकर मोहताजी है या जो औरत पति पर ही निर्भर थी-पति उसे छोड़कर और कहीं चला गया है या उस औरत को ही खदेड़ दिया गया है या पति जितनी-सी कमाई करता है, उससे गृहस्थी अच्छी तरह नहीं चलती। ऐसी औरतों की जिंदगी ही, अब किसी और दिशा में घूम गई है। वे लोग अब हाथ में टिफिन-कैरियर लेकर सड़कों पर उतर पड़ी हैं; बसों में सवार होती हैं, अपना नाम दस्तखत करने लगी हैं। अब वे लोग कतारों में कुर्सियों पर बैठती हैं। सुबह-शाम काम करती हैं। जिन औरतों को किसी दिन सिर में तेल तक नसीब नहीं होता था, वे लोग अब अपने पैसों से खरीदा हुआ तेल, अपने बालों में लगाती हैं, अपने पैसों से अपने पाँवों के लिए जूते-चप्पल ख़रीदती हैं, जिन्हें पहले कभी जूते-चप्पल पहनना नसीव नहीं हुआ। अब वे अपने पैसों से मछली-भात खाती हैं। यह जीवन बेशक, दौलतमंद पति की पालतू बीवियों से कहीं ज़्यादा मान-सम्मान की जिंदगी है। निम्नवित्त लड़कियाँ, जव दल बाँधकर, काम पर निकलती हैं, व्यस्तता में डूबी रहती हैं, उस वक्त मुझे काम-काजहीन, नकारा बैठी औरतों के प्रति सख्त हिकारत होती है, जो फिजूल वक्त बर्बाद करती रहती हैं। पड़ोसियों के साथ तुच्छ हँसी-मजाक में मगन रहती हैं। गहने-साड़ी की दुकानों की सैर करती हैं, अपने साज-सिंगार के लिए सोना-दाना खरीदती हैं, मर्दो को पटाने की उम्मीद में महँगी-महँगी साड़ियाँ ख़रीदती हैं।

(3)


नर्स, शिक्षक, प्राइवेट सेक्रेटरी-जो लोग औरतों को इन्हीं सबमें कैद रखना चाहते हैं, वे लोग दरअसल पुरुषतांत्रिक अहम के शिकार हैं। लड़कियाँ आखिर किस गुण में माहिर नहीं है? फिर वे किसी बँधी-बँधाई सीमा में क्यों आवद्ध रहें? वे लोग असीम का स्पर्श क्यों न करें? औरत जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट हो सकती है, उसी तरह पायलॅट, ड्राइवर, रिक्शाचालक भी हो सकती है; पत्रकार भी हो सकती है, सांसद भी हो सकती है। अभी औरत अभिनय करती है। किसी दिन पटकथा भी लिखेगी। उसे फिल्म-निर्देशक भी बनना होगा; लाइट मैन, मेकअप मैन...सभी कुछ बनना होगा। इस दुनिया में काम की कमी नहीं है। जिस किसी भी काम में औरत अनायास ही अपनी दक्षता और पारदर्शिता दिखा सकती है। अब फुर्सत के वक्त समाज-सेवा के काम करने के दिन लद गए। अब उन लोगों को जोखिम उठाना होगा, अपने कंधों पर बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ लेनी होंगी। वर्ना औरत के दिन न लौटे हैं, न लौटेंगे। समाज में उसे हर तरफ अपना विस्तार करना ज़रूरी है। समूचे राष्ट्र में जब तक वह अपने को बिखेर नहीं देगी, तो निश्चित दायरे में कैद उसकी जिन्दगी, दायरे में ही कैद रह जाएगी।

औरत अब क्या चाहती है? उसे संकुचित दायरे में कैद रखने के समूचे आयोजन की उपेक्षा करना है या स्थिति जैसी है, वैसी ही रहने देना है? क्या वह पुरुष की सेवा-टहल में ही अपनी समूची जिन्दी गुज़ार देगी?



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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